यह क्या की फिर तन्हा हुं
हर रोज क्यों इसी मोड़ पर रुक जाती हो ज़िन्दगी।
क्यों...
नारा़ज हों?
क्या मुस्कराओगी नहीं?
चलो आज तुम से शिकयत नही करते,
बात करते हैं।
तुम्हारे इन्द्रधनुसी रंग उलझा देती हैं,
कभी-कभी।
तुम्हारे धूप-छांव से झूलस जाता हुं।
अरे यह क्या ...
मैं फिर ...चलॊ छॊडॊ..
याद हैं कल ’मेनन’ के मे़ज पर
कैसे इठल के हंसी थी।
मेरी हार का मज़ा लेते हुए,
जैसे मेरा आसु ’mineral water’ हॊ,
जिससे तुम अपनी प्यास बूझाऒ।
शायद दरवाजे में कोई हैं ॥
देखो जाना नहीं ..
क्या पता तुम्हारे लिए
कोई पानी लाया हॊ।
हा.हा..हाहा
राजेश कुट्ट्न
I stopped collecting from others. Say good luck to me.
Wednesday, October 03, 2007
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